वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

अ꣡र्षा꣢ सोम द्यु꣣म꣡त्त꣢मो꣣ऽ꣡भि द्रोणा꣢꣯नि꣣ रो꣡रु꣢वत् । सी꣢द꣣न्यो꣢नौ꣣ व꣢ने꣣ष्वा꣢ ॥९९४॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

अर्षा सोम द्युमत्तमोऽभि द्रोणानि रोरुवत् । सीदन्योनौ वनेष्वा ॥९९४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡र्ष꣢꣯ । सो꣣म । द्युम꣡त्त꣢मः । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । रो꣡रु꣢꣯वत् । सी꣡द꣢꣯न् । यो꣡नौ꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । आ ॥९९४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 994 | (कौथोम) 3 » 2 » 11 » 1 | (रानायाणीय) 6 » 4 » 1 » 1


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५०३ क्रमाङ्क पर परमात्मा और वानप्रस्थ के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ प्रकारान्तर से परमात्मा का विषय दर्शाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगत् के स्रष्टा परमात्मन् ! (योनौ) अन्तरिक्ष में (वनेषु) जलों में (आसीदन्) रहनेवाले, (द्युमत्तमः) देदीप्यमान, (रोरुवत्) गर्जना करते हुए बिजलीरूप अग्नि के समान, (योनौ) घर में और (वनेषु) जंगलों में, सब जगह (आसीदन्) स्थित हुए, (द्युमत्तमः) सब से बढ़कर तेजस्वी (रोरुवत्) कर्तव्य का उपदेश करनेवाले आप (द्रोणानि अभि) आत्मा, मन, बुद्धि आदि द्रोणकलशों के प्रति (अर्ष) आइए ॥१॥ यहाँ श्लेषमूलक वाचकलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

घर हो या जंगल हो, पहाड़ हो या गुफा हो, नदियाँ हों या समुद्र हो, भूमि हो या आकाश हो, बिजली हो या अन्तरिक्ष हो, शरीर हो या आत्मा हो, सभी जगह विराजमान भी जगदीश्वर जब तक ध्यान से प्रकाशित न हो जाए, तब तक प्रत्यक्ष नहीं होता ॥१॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५०३ क्रमाङ्के परमात्मविषये वानप्रस्थविषये च व्याख्याता। अत्र प्रकारान्तरेण परमात्मपक्ष एव प्रदर्श्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (योनौ) अन्तरिक्षे (वनेषु) उदकेषु (आसीदन्) तिष्ठन्, (द्युमत्तमः) अतिशयेन द्युतिमान्, (रोरुवत्) गर्जनां कुर्वन् विद्युदग्निरिव (योनौ) गृहे (वनेषु) अरण्येषु च, सर्वत्रैवेत्यर्थः (आसीदन्) आतिष्ठन् (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः (रोरुवत्) कर्त्तव्यमुपदिशन् त्वम् (द्रोणानि अभि) आत्ममनोबुद्ध्यादीन् द्रोणकलशान् प्रति (अर्ष) आगच्छ ॥१॥ अत्र श्लेषमूलो वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

गृहे वाऽरण्ये वा, गिरौ वा गह्वरेषु वा, सरित्सु वा समुद्रे वा, भुवि वा दिवि वा, विद्युति वाऽन्तरिक्षे वा, देहे वाऽऽत्मनि वा सर्वत्रैव विराजमानोऽपि जगदीश्वरो यावद् ध्यानेन प्रकाशितो न जायते तावत् प्रत्यक्षतां नो याति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६५।१९, ‘सीदञ्छ्येनो न योनिमा’ इति पाठः। साम० ५०३, ऋषिः भृगुः।